7वीं सदी के शिलालेख से प्राचीन चालुक्य काल का जीवंत चित्र उभरता है • Kannada Inscription

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कर्नाटक के मडापुरा झील पर मिले 7वीं सदी के पुराने कन्नड़ शिलालेख (Kannada Inscription) से विक्रमादित्य प्रथम के शासन, प्रशासनिक ढांचे, सांस्कृतिक निरंतरता और जनकल्याण की झलक मिलती है।

1. मडापुरा झील की खोज ऐतिहासिक और भावनात्मक रूप से क्यों महत्वपूर्ण है?
25 अप्रैल 2025 को दावणगेरे जिले के न्यामति तालुक स्थित मडापुरा झील में पुरातत्वविदों ने एक पांच फुट लंबा शिलालेख खोजा। इसमें विक्रमादित्य प्रथम (654–681 ई.) के शासनकाल का वर्णन है। पुराने कन्नड़ में खुदे 17 पंक्तियाँ 1300 साल पुराने एक समाज से आज के लोगों को जोड़ती हैं। कर्नाटक पुरातत्व विभाग द्वारा सत्यापित इस खोज में इतिहास और भावनाओं की गहराई दोनों छुपी हैं, जो समय की चुप्पी में जीवन की धड़कन को प्रकट करती हैं।

2. यह शिला प्राचीन भारत की संवेदनशील शासन व्यवस्था को कैसे दर्शाती है?
शिलालेख में सिंहवेन नामक अधिकारी द्वारा कर माफी और झील निर्माण के लिए छह एकड़ भूमि दान का उल्लेख है। यह विक्रमादित्य प्रथम के शासनकाल में किए गए जनकल्याण प्रयासों को दर्शाता है। कृषि और जल संरक्षण से जुड़े इन प्रयासों की पुष्टि चालुक्य अभिलेखों और समकालीन शिलालेखों से होती है। इससे स्पष्ट होता है कि 7वीं सदी में भी शासन जनभावनाओं के प्रति उत्तरदायी और संवेदनशील था।

3. शिलालेख 7वीं सदी के प्रशासनिक ढांचे के बारे में क्या बताता है?
इसमें ‘बल्लवि’ नामक प्रशासनिक इकाई का उल्लेख है, जिसमें लगभग 70 गांव शामिल थे। इससे स्पष्ट है कि उस काल में भी संगठित और विकेन्द्रीकृत प्रशासनिक व्यवस्था विद्यमान थी। जल, भूमि और विवाद प्रबंधन स्थानीय स्तर पर होता था। ऐहोल और बादामी के शिलालेखों से इसकी पुष्टि होती है। यह खोज दर्शाती है कि चालुक्य शासन काल में शासन-प्रशासन का ढांचा बहुत ही परिपक्व और सुनियोजित था।

त्वरित तथ्य बॉक्स: कर्नाटक में 7वीं सदी के शिलालेख की खोज
तारीख: 25 अप्रैल 2025, न्यामति तालुक, दावणगेरे
लंबाई और लिपि: 5 फीट, पुरानी कन्नड़ में 17 पंक्तियाँ
कालखंड: विक्रमादित्य प्रथम (654–681 ई.)
प्रमुख तथ्य: कर माफी और भूमि दान का उल्लेख
प्रशासनिक प्रणाली: 70 गांवों वाली बल्लवि इकाई
बाद की कलाकृति: 17वीं सदी की अधूरी मूर्तिकला भी अंकित

4. एक ही पत्थर पर दो युगों की छाप क्यों अद्वितीय है?
इस शिलालेख पर 17वीं सदी की अधूरी मूर्तिकला भी अंकित है, जो बताती है कि यह पत्थर बाद के युगों में भी धार्मिक या सामाजिक रूप से महत्त्वपूर्ण रहा। पुरातात्विक शैली और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के विश्लेषण से इसकी पुष्टि हुई है। यह भारत की उस परंपरा को दर्शाता है जहाँ प्राचीन धरोहरों को बार-बार नए अर्थों में अपनाया गया। यह शिला समय के दो छोरों को जोड़ने वाली दुर्लभ भौतिक कड़ी बन जाती है।

5. इतिहासकारों की नजर में विक्रमादित्य युग और यह खोज कितनी महत्वपूर्ण है?
इतिहासकार डॉ. एस. वेंकटेश कहते हैं, “विक्रमादित्य ने सिर्फ वातापी नहीं, विश्वास की व्यवस्था भी फिर से खड़ी की।” शिलालेख विशेषज्ञ प्रो. मालिनी राव कहती हैं, “यह शिलालेख दर्शाता है कि प्राचीन दक्षिण भारतीय राजा केवल युद्ध नहीं, कल्याण की नीतियों से भी पहचाने जाते थे।” इस शिलालेख की ऐतिहासिकता की पुष्टि चालुक्य काल के अन्य अभिलेखों से होती है। यह खोज सत्ता से ज्यादा सेवा को उजागर करती है।

इस कहानी को पढ़ना क्यों जरूरी है
यह खोज 7वीं सदी के कर्नाटक से भावनात्मक और ऐतिहासिक जुड़ाव कराती है। यह इतिहास नहीं, बल्कि उस समय के मूल्यों का जीवंत प्रतिबिंब है—एक मानवीय शासन की अमिट छाया।

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